लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ मीडिया नही शिक्षातंत्र ...

न्यायपालिका, व्यवस्थापिका और विधायिका में होने वाले निरंतर टकराव का एक मात्र कारण है कि विश्वविद्यालयों की घोर उपेक्षा की गई है जब कि राज्यपाल और राष्ट्रपति इनके पदेन कुलपति हैं। लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ मीडिया नही शिक्षा तंत्र है। सूचना और प्रसारण तो शिक्षा का एक हिस्सा मात्र है जो बैक ग्राउण्ड में काम करने वाली टीम ना हो तो मनमाने खेल खेलने लगती है। कल्पना करो कोई और खिलाडी ही ना हो और बैक ग्राउण्ड टीम ना हो तो सचिन तेन्दुलकर मैदान में जो कर दिखाए वही सब खेल हो जाएगा ना ? बस हमारे मीडिया का यही हाल हो गया है। इतिहास का चाणक्य पढाने के बजाय हमें भारतीय विश्वविद्यालयों में शेष तीनों स्तम्भों की महत्वपूर्ण सामग्री मांगे जाने पर तत्काल समीक्षा हेतु आनी चाहिए।
भारत में भी मांग हो कि किसी भी बिल पर कोई सांसद, विधायक हाथ उठाए उससे पहले उस बिल पर उसका एग्जाम लिया जाना चाहिए, जिससे तय हो कि उसने उस बिल से होने वाले हित अहित ठीक से समझ लिए हैं। अगर ऐसा ना हो तो उसे उस बिल पर वोट करने का अधिकार नही होना चाहिए... आर्थिक घोटालों की बाढ़, पर्यावरण समस्या, विकास का असंगत मोडल, 1947 की आजादी के बाद भी जनसाधारण की गुलाम की सी मानसिकता इन सब का समाधान केवल यही है कि शिक्षातंत्र को प्रोटोकॉल के तहत जो अधिकार प्रदत्त है ही उनका उपयोग करना चाहिए देश भर के शिक्षकों और स्नातक विद्यार्थियों को।